प्रसंग- 15

 

काहे बिल्ली रास्ता काटे            

श्री डी.एन. पाण्डेय रचित पुस्तक जाने अनजाने प्रसाद के दो दाने“ से साभार

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गुरू पूर्णिमा आने वाली थी। मन उल्लास से भरा था। बरहरवा बिन्दुधाम जाने की तैयारी कर रहा था। कोर्ट से आया था। रामकिशोर सिंह (जवायत संग्रामपुर, मुँगेर) मेरे घर पधारे थे। रोड नं. 1, राजेन्द्र नगर, पटना में उस समय मेरा एक छोटा डेरा था। वकालत वहीं से आरम्भ किया था। रामकिशार सिंह अपने एक केस के बारे में पता लगाने के लिए आये थे। पटना हाई कोर्ट में उनका केस लम्बित था। जमीन का मुकदमा था। गुरूधाम जाना था— यह मैंने तय कर रखा था। चाय-नाश्ते की तैयारी हो रही थी। मैं अपना कोट और कपड़ा खोल रहा था। तभी तुंगेश्वर प्रसाद सिंह, मकान मालिक कहीं से चले आये। जलपान में वे भी शरीक हो गये।

बात मेरी ओर से ही शुरू हुई। मैंने ही कहा, “रामकिशोर, इस बार बरहरवा चलो। अभी तुम्हारे केस में देर है।” मैंने अपने मकान मालिक तुंगेश्वरबाबू से भी कहा कि आप भी बरहरवा चलें, किन्तु तुंगेश्वरबाबू ने कहा, “नहीं, कल पूर्णिमा है। हरिहर क्षेत्र के मेले में चलें। भगवान शिव पर जल चढ़ायें।” वे अपनी जिद पर अड़ गये। बात न बिगड़े, इसलिए मैंने बुझउअलि’ (‘टॉसकी तरह निर्णय करने की एक विधि) द्वारा इसका निर्णय करने का सुझाव दिया। एक उँगली पर हरिहर क्षेत्र और दूसरी पर बरहरवा बिन्दुधाम रखा जायेगा। तुंगेश्वरबाबू जिस स्थान वाली उँगली पकड़ेंगे, वहीं चला जायेगा। मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। उन्होंने दो बार उँगली पकड़ी ओर दोनों बार वही उँगली पकड़ी, जिसका मतलब बरहरवा चलना था। जब मैंने निर्णय सुनाया तो वे झल्ला गये और बोले, “पाण्डेय जी, आप झूठ बोल रहे हैं।”

अब उन्होंने रामकिशोर से उँगली पकड़वाने को कहा। अबकी बार भी वही परिणाम हुआ। उन्होंने रामकिशोर की वही उँगली पकड़ी, जिस पर उसने बरहरवा जाने की बात सोच रखी थी। अब तुंगेश्वरबाबू ने कहा कि आप दोनों आदमी बारी-बारी से मेरी उँगली पकड़ें। जब हम लोगों ने बारी-बारी से उनकी उँगली पकड़ी तो वे ठहाका मारकर हँस पड़े। उन्होंने कहा, “आप दानों आदमी हार गये। हरिहर क्षेत्र चलना है।”

भवितव्यता अपनी ओर खींच रही थी। बात तय हो गयी कि हरिहर क्षेत्र जाना है। मैं विवश था, क्योंकि तुंगेश्वरबाबू मकान मालिक थे, स्वजन भी थे, मुझे भाई की तरह मानते थे। किन्तु भीतर-भीतर मन कचोट रहा था। काश, तुंगेश्वरबाबू का मन विधाता बदल देते! अगर उनका मन बदल जाता, तो शायद इतनी भयंकर घटना नहीं होती। पर काल की गति को कौन जानता है?

बरहरवा बिन्दुधाम नहीं जा सका। दिन के दस-ग्यारह बजे होंगे। तुंगेश्वरबाबू  ऊपर से नीचे आये और बोले, “पाण्डेय जी चलिए, नाव से जाना है। पता नहीं, जहाज मिलेगा या नहीं।” मेरी जाने की इच्छा नहीं थी। गुरूधाम जाने का मोह अभी भी पूरी तरह नहीं मिटा था, किन्तु तुंगेश्वरबाबू ने बहुत हठ किया। मैं अपने ऑफिस के कमरे से भीतर गया, जहाँ बाबा की तस्वीर थी, लाहिड़ी बाबा की तस्वीर थी, बाबा जी महाराज की तस्वीर थी, और भी कई तस्वीरें थीं। मैंने प्रणाम किया, अपने गुरूओं को और माँ काली को, किन्तु ज्योंही पूजा घर से ऑफिस में आया, एक काली बिल्ली ने रास्ता काटा।

मैंने कहा, “तुंगेश्वरबाबू! अब हरिहर क्षेत्र जाना ठीक नहीं है। बिल्ली ने रास्ता काट दिया।”

तुंगेश्वरबाबू ने कहा, “धत्त, आप बिल्ली से डर गये। चलिए, चलिए, कुछ नहीं होगा।”

अपने पूजाघर में पुनः गया और पूर्ववत् प्रणाम किया। जाने के लिए बाहर निकलते ही उसी बिल्ली ने, जो जँगले पर बैठी थी, फिर रास्ता काटा।

अब तो मैं तय कर चुका था कि किसी भी कीमत पर नहीं जाना है, किन्तु तुंगेश्वरबाबू ने जिन्हें मैं तुंगबाबू कहता था, कहा कि अब जाने का तय हो चुका है, तो जाना ही है। अन्यथा मैं अकेले चला जाऊँगा। लाचार होकर रामकिशोर और मैं उनके पीछे चल पड़ा। अभी हम लोग दूसरे कमरे को, यानि ऑफिस के कमरे को पार ही कर रहे थे कि उस बिल्ली ने पुनः बरामदे से ही छलाँग लगाकर रास्ता काटा।

मैं भयभीत था। रामकिशोर भी अब जाने के लिए तैयार नहीं थे। किन्तु तुंगबाबू आगे बढ़ गये और मकान की गेट पर खड़े होकर हम दोनों को बुलाने लगे। हम दोनों उनके पास गये। मन किसी भावी दुर्घटना की आशंका से काँप रहा था; न जाने आगे क्या होने वाला है!

हम तीनों हरिहरक्षेत्र पहुँचे।  तुंगेश्वरबाबू के एक सम्बन्धी गंगा के उस पार सबलपुर गाँव में रहते थे। हम तीनों ने उन्हीं के यहाँ भोजन किया। तुंगबाबू के सम्बन्धी भी साथ हो गये। अब तीन से हम चार हो गये। तुंगबाबू ने कहा कि तीन की यात्रा ठीक नहीं होती है— तीन तिकट महाविकट। हम चारों लोग मेले में पहुँचे।

पूर्णिमा का मेला। मेले में जन-सैलाब उमड़ रहा था। सन्ध्या की बेला थी। सूरज धूल से ढँक चुका था। मेले में धूल का गुबार ऊपर से और भयंकर। हाथी का मेला, बैल-घोड़ों का मेला, गाय-भैंसों का मेला, चिड़ियों का मेला, कौन इतना घूमे! धीरे-धीरे रात होने लगी। हम लोगों ने किसी प्रकार बाबा हरिहरनाथ के दर्शन किये और अब हम लोग मन्दिर के बाहर हो चुके थे।

तुंगबाबू ने कहा, “चलिए, हाजीपुर के पास मेरे एक सम्बन्धी हैं, वहीं रात में ठहरेंगे।” किन्तु इसके लिए न मैं तैयार था और न रामकिशोर। हम दोनों इधर-उधर घूमते हुए, रात की जहाज पकड़कर पटना चले आये। और तुंगबाबू और उनके सम्बन्धी अपने किसी और सम्बन्धी के यहाँ चले गये।

रात के बाद सुबह हुई। दिन किसी प्रकार से कटा। पुनः रात हुई और वह रात भी कट गयी। अभी दिन में पूरी तरह से गर्मी भी नहीं आयी थी कि सारा मकान क्रन्दन से गुंजित हो गया। तुंगबाबू के सम्बन्धी— जिनके साथ तुंगबाबू थे— वे लौटकर आये थे और उन्होंने बताया कि तुंगबाबू मृत्यु शैय्या पर हैं। मैसेज दे दिया गया है। पहले कॉलरा हुआ और फिर लकवा मार दिया। हाजीपुर अस्पताल में भर्ती दिया गया है। उनके बाल-बच्चे सभी रो रहे थे। उनकी बूढ़ी पत्नि मुझे पकड़कर रोने लगी और वह यह कहकर रो रही थी, “पाण्डेयजी, वो आपके साथ गये, किन्तु आप उनको कहाँ छोड़ दिये? आप उन्हें जैसे ले गये थे, वैसे ले आईये।” बात सब उल्टी थी। तुंगबाबू को तो हम मना कर रहे थे कि नहीं जाना है। वह स्वतः गये। सत्य तो यह था कि वे जिद पर अड़े थे। और हम लोग विवश होकर उनके साथ गये थे। मैं सब कुछ कह रहा था, किन्तु मेरी सुनने वाला कौन था।

धीरे-धीरे मैंने सबको समझाया, किन्तु जैसी-तैसी अवस्था में हम लोग हाजीपुर अस्पताल पहुँचे। तुंगबाबू के लड़के भी साथ थे। अस्पताल पहुँचे, तो देखे कि तुंगबाबू की लाश सामने प्रांगण में पड़ी थी। हिम्मत नहीं हो रही थी कि हम लोग मुँह पर से कपड़ा उठावें, किन्तु हम सब लोग आगे बढ़े और जब कपड़ा मुँह पर से उठाया, तो मैंने कहा कि श्वांस चल रही है।

थोड़ी-सी आशा बँधी, किन्तु ऐसी साँस की आशा क्या? जो कि बीच-बीच में बन्द हो जाती थी। आवाज बिलकुल बन्द थी। नाक और मुँह से झाग निकल रहा था। हाथ-पाँव में कहीं स्पन्दन नहीं था। अन्तिम निर्णय हुआ कि घर ले चलें। सबसे दर्शन तो हो जायेंगे।

तुंगबाबू का शरीर भारी था। हाजीपुर की गण्डकी नदी के किनारे, महावीर चबूतरा के पास तुंगबाबू को रखा गया और नाव की खोज होने लगी कि उस पार नाव से चला जाय। महावीर चबूतरे पर तुलसी का एक विशाल झंगाठ पौधा था। मैंने अपने गुरू का नाम लिया। तुलसी का दल तोड़ा, चुल्लू में गण्डकी का पानी लिया और तुलसी के पत्ते साथ गुरू का नाम लेकर पानी उनके मुँह में डाला, किन्तु न तुलसी का दल भीतर गया और न गण्डकी का जल। हम लोगों ने निराश होकर तुंगबाबू का भारी-भरकम शरीर उठाकर नाव में डाला। जो कि तीन दिन पहले हँसता था, वह अब एक लाश की तरह नाव में पड़ा था। सभी लोग दुःखी थे। और जब मैं यह कहता था कि बिल्ली ने तीन बार रास्ता काटा था तो सब कोई आश्चर्य से सुनते थे और कहते थे, “पाण्डेयबाबू, भाग्य की विडम्बना को कौन जानता है? काश! तुंगबाबू आपकी बात मान लिये होते तो यह दुर्दशा तो नहीं होती।”

अब नाव पटना घाट पर लग चुकी थी। फिर उनके भारी-भरकम शरीर को हम लोगों ने नाव से उतारा। वहाँ भी गुरू का नाम लेकर गंगा जल और तुलसी उनके मुँह में डाला, किन्तु सब बाहर निकल आया।

गौरीबाबू जो उनके दामाद थे, सब कुछ देख रहे थे। सबकी आँखों में आँसू थे। अब सवाल था कि घर ले चलें या अस्पताल। अन्त में हम लोग सब उन्हें अस्पताल ले आये। अस्पताल के बाहर उनको लिटा दिया गया। सभी नाश्ता करने चले गये और मैं वहीं बैठा था। कभी गुरू, कभी महावीर जी, कभी माँ का नाम लेता था। अचानक उनको जोर की टट्टी हुई, मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करुँ? साँस आ चुकी थी और हम लोगों ने उनको अस्पताल में भर्ती करा दिया। थोड़ा-थोड़ा ठीक हुए, तो उन्हें राजेन्द्रनगर उनके निवास स्थान पर लाया गया।

उनके गुरू महाराज भी आ गये। उन्होंने कहा, “पाण्डेय जी, बरहरवा जाकर अपने गुरू का आशीर्वाद ले आयें।” उनकी पत्नी ने भी कहा और मेरे मन में भी हुआ कि बाबा मुझे कलंक से बचायें।

मैं बरहरवा गया। सारी बातें सुनकर बाबा मेरे ऊपर बिगड़ गये। जब मैंने बार-बार कहा, तो बाबा ने कहा, “ऐसा कोई घर में, परिवार में— चाहे उनकी पत्नी, बेटा, भाई है, जो मिट्टी के शिवलिंग पर उनके हाथ से कच्चा दूध चढ़वाये और उस दूध को पीकर यह कहे कि हे काल, हे शिव, इनके बदले मेरे प्राण ले?”

तब मैंने कहा, “अगर कोई तैयार न हो तो? बाबा ने कहा, “कोई पण्डित अगर महामृत्युंय का पाठ करे, निर्दिष्ट वस्त्र पहने और उनके हाथ से महामृत्यंजय का मंत्र ले, तो उनका कल्याण होगा। पण्डितजी को भी हरा वस्त्र पहनाना होगा और आठ आने भर से ज्यादा की अँगूठी उनके हाथ से इक्कीस दिन बाद, दान कराओ। उनका कल्याण होगा।” बाबा ने अपने बिस्तर से उठाकर एक फूल दिया और कहा, “उनके सिरहाने रख देना।” साथ में हिदायत दी कि मैं कुछ न करुँ। न जाने बाबा ने मुझे क्यों मना किया।

पटना आकर सब कुछ उनके गुरू महाराज, उनकी पत्नी और बच्चों से कहा। कोई भी तैयार नहीं हुआ कि उनके हाथ से दूध ले और उनके बदले अपना प्राण दे। बाद में पण्डितजी को बुलाया गया। पण्डितजी ने यथावत जप किया, हरा वस्त्र पहना। इक्कीस दिन बाद भव्य अँगूठी उनको दान में मिली, किन्तु अफसोस कि पण्डितजी चल बसे और तुंगबाबू चंगे हो गये। तुंगबाबू ने उसके बाद गाड़ी खरीदी, आनन्द मनाया, किन्तु वह अभागा पण्डित संसार से कूच कर गया।

संसार में कोई किसी का नहीं होता है। यह पण्डित का बलिदान ही था, क्योंकि उन्होंने मौत का आलिंगन किया। बाबा की तस्वीर आज भी रोड नं. एक, राजेन्द्रनगर में है। जबकि मैं उस मकान को छोड़ चुका हूँ, किन्तु जब कभी उधर जाता हूँ तो अपने गुरू का नमन करता हूँ। उस घर में बिल्ली ने तीन बार रास्ता काटा था। रामकिशोर अभी जीवित हैं। तुंगेश्वरबाबू और उनके गुरू इस दुनिया में नहीं रहे। शायद कालान्तर में पूर्णिमा के दिन ही तुंगबाबू का शरीर छूटा, किन्तु उनका परिवार आज भी है जो मेरे गुरू के प्रति अनुगृहीत है और मेरे गुरू का स्मरण हर विपत्ती में करता है।

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