एक तार्किक सज्जन द्वारा बाबा की परीक्षा
श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक ”परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार
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कुछ ही दिन हुए, बाबा के एक तार्किक भक्त से भेंट हुई। पुरानी बातें चल पड़ीं। बाबा का प्रसंग आने पर उनकी आँखों से आँसू टपकने लगे। आश्चर्य से मैंने पूछा, “........... भैया, आपको तो हमेशा उनसे तर्क करते पाया, जो हमें अच्छा नहीं लगता था। आज उनके प्रसंग में आपकी आँखों में आँसू देख कर पूछे बिना नहीं जा रहा है कि यह आत्म-समर्पण कब, कैसे हुआ?“
उत्तर में वे प्रच्छन्न भक्त, जो अब तक हमेशा उनसे तर्क और वाद-विवाद करते हुए अपने को छुपाकर रखते थे, गद्गद स्वर में बताने लगे—
“मैं तो युक्तिवादी हूँ, भावप्रवण नहीं। एक दिन मन में आया कि उनकी परीक्षा ली जाय। सोचा, आज की परीक्षा पर ही मेरा यहाँ ‘आना’ या ‘नहीं आना’ निर्भर है। कुटिया में एक तरफ बैठकर मन-ही-मन सोचने लगा, ‘आप कौन हैं— महापुरूष, या अवतार; सिद्ध, या महात्मा— आप जो कुछ भी हों, मैं आप ही से जानना चाहता हूँ, वह भी आज रात ही ठीक आठ बजे!’
“आश्रम के किसी एक को यह भार सौंपा कि आज रात ठीक आठ बजे बाबा क्या करते या कहते हैं— इसका ध्यान रखना और कल मुझे सूचित करना। दूसरे दिन सुबह आश्रम जाकर उससे पूछा, तो उसका जवाब इस प्रकार था—
“’बाबा तो ठीक ही गपशप कर रहे थे। जैसे ही आठ बजने को हुआ, सीधे होकर बैठ गये, अचानक उत्तेजित हो गये, लटकती जटाओं को जोर से पीछे हटाकर ठीक आठ बजने के साथ-साथ बोल उठे— ‘शाला, परीक्षा ले रहा है!’’” (बँगला में।)
बाबा में अलौकिक चमत्कार दिखाने की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती थी। कदाचित् उन विराट पुरूष के ये सब चमत्कार उनके नहीं चाहने पर भी प्रकट हो जाते थे। वे क्या थे, कौन थे— यह जानना तो उन्हीं के बस की बात थी। अपने बारे में जिसे जहाँ तक उन्होंने जानने दिया, वह वहीं तक जान पाया।
(टिप्पणी: अनुमान है कि वे तार्किक सज्जन बरहरवा के बुद्धीजीवि अधिवक्ता स्व. दिलीप साव रहे होंगे।)
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