प्रसंग-2

जब पहाड़ी बाबा को विष दिया गया

श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार

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नवागत साधूबाबा का तो स्थायी बन्दोबस्त हो गया, पूर्वतन पण्डाजी को भी बरखास्त नहीं किया गया, परन्तु बेचारे विद्वेष की आग में जलने लगे। अर्द्धाहार या निराहार— किसी भी हालत में सन्यासी ने स्थानत्याग नहीं किया, चरम पन्था लेने पर फल विपरीत हो गया। अपने को ही लोगों के सामने तिरस्कृत होना पड़ा, साधूबाबा को ही मर्यादा के साथ प्रतिष्ठा मिल गई। आश्रम से उनको हटाया नहीं गया।

आश्रम से तो हटाया नहीं गया, किन्तु विद्वेषानल में जलते पण्डाजी ने इस अवांछित विपत्ती को संसार से ही हमेशा के लिए हटाने की योजना एक दिन बना ली। इस घटना के बारे में बहुत दिनों बाद बाबा के श्रीमुख से जैसा सुना था, वैसा ही यहाँ लिखा जा रहा है। एक दिन बातचीत के सिलसिले में एक भक्त ने उनसे पूछा कि उनको विष (जहर) प्रयोग द्वारा मारने के प्रयास के बारे में सुना जाता है, क्या यह सच है? उनको कैसे विष दिया गया था?

बाबा ने बताया, “लकड़ी लेकर मारने का प्रयास करने पर तो चला ही जा रहा था। सोचा था क्या जरुरत है यहाँ इतनी अशान्ति करने की। जब यह नहीं चाह रहा है, तो मेरा चले जाना ही अच्छा है, लेकिन माँ की इच्छा अलग ही थी, ये लोग स्टेशन से लौटा लाये।

“इसके कुछ दिनों बाद की बात है। नगीना दोपहर में ही कहीं निकला था। शाम से कुछ पहले लौट आया। बहुत ही मीठी बोली से पूछा, ‘बंगाली बाबा को कोई तकलीफ तो नहीं है?’ अचानक उसके मुँह से इस प्रकार की मीठी बोली सुनकर विस्मय हुआ, यहाँ आने के बाद से ऐसी बोली तो कभी सुनी नहीं!

“अचानक बरामदे पर बुलाया। जाने पर एक कटोरी में कुछ सना हुआ सत्तू देकर कहा, ‘लो बाबा, थोड़ा-सा परसादी खा लो। दिनभर से तो भूखा है।’

“सत्तू का ढेला तो निगल गया। पानी का एक लोटा भी बढ़ा दिया— पूरा पी गया, तब अपने आसन पर आकर बैठा। करीब तीन मिनट के अन्दर ही शरीर में एक अजीब अस्वस्थता का अनुभव होने लगा। सिर में चक्कर आने लगा, आँखें जलने लगीं, पसीना निकलने लगा, साथ ही बहुत जोर से प्यास लगने लगी। सहदेव को (उस समय बिन्दुवासिनी में काम करता था, बाद में बहुत दिनों तक बाबा की सेवा में लगा रहा।) को बुलाकर एक लोटा पानी माँगा। लोटा भर पानी पी डाला, प्यास शान्त नहीं हुई। लग रहा था— भीतर से जिह्वा खींची जा रही है। सारे शरीर में अद्भुत अस्थिरता का अनुभव होने लगा.......। फिर सहदेव को बुलाकर कहा, ‘बेटा सहदेव, यह मेरा क्या हुआ बेटा? फिर प्यास लग रही है, जल्दी पानी ला दो बेटा।’

“वह दौड़कर पानी लाने गया। इतने में अनुभव होने लगा कि जैसे मैं अन्धकार में डूब रहा हूँ। सम्पूर्ण शरीर अवश हो गया......। अचानक मन में यह बात आयी कि नगीना ने जो सत्तू खिलाया, उसी में तो कुछ..... बात मन में आते ही फिर बैठा नहीं गया। सोचा, अगर ऐसा ही है, तब तो ज्यादा समय नहीं है। हिलते-डुलते किसी हालत में अपने शरीर को मन्दिर के भीतर लाया। मुँह से आवाज निकल नहीं रही थी। वेदी के पास बैठकर माँ से कहा, ‘माँ, आखिर तेरे मन में यही था? अभी तो बहुत......।’ उसके बाद क्या हुआ, याद नहीं है।”

इधर सहदेव पानी भरा लोटा लेकर आसन के पास आकर बाबा को नहीं देखकर इधर-उधर ढूँढ़ते हुए मन्दिर में आया और उस हालत में बाबा को देखकर चौंक उठा। बाबा मन्दिर की मातृवेदी पर सिर टिकाकर अचेत अवस्था में पड़े हुए थे। शरीर छूकर देखा— लकड़ी की भाँति कड़ा, उसमें प्राण का कोई लक्षण ही नहीं था। पहले तो बेचारा बुद्धि खोकर पण्डाजी के पास दौड़कर गया। पण्डाजी ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, “परमहँस बाबा अभी समाधि में है, तंग मत करो।” लेकिन सहदेव को इसपर भरोसा नहीं मिला। वह बाबा को उसी हालत में रखकर दौड़कर बरहरवा आ पहुँचा। खबर दिया तत्कालीन सरकारी चिकित्सक, बाबा के अतीव प्रिय पात्र डॉ. रटन्ती घोष महाशय को। साथ ही, फोन से सूचित किया गया बाबा के एक और विशिष्ट भक्त बी.डी.ओ. साहब रथीन बैनर्जी को भी। कुछ ही देर में यह खबर चारों तरफ फैल गयी कि नये साधू बाबा की विष-भक्षण से अकाल मृत्यु हो गयी है। जीप गाड़ी लेकर दौड़े आये डॉ. घोष और बैनर्जी साहब। दौड़कर पहुँचे बरहरवा के स्थानीय लोग।

साधू बाबा का अचेतन शरीर तब तक मन्दिर में पड़ा हुआ था। काल विलम्ब न कर डॉ. घोष ने चिकित्सा आरम्भ की। यंत्र के सहारे पाकस्थली का पम्प करने पर विषाक्त पदार्थ निकलने लगा, जो बाद में परीक्षा से धतूरे का बीज प्रमाणित हुआ। उपस्थित सभी लोगों ने स्वीकार किया कि इस विष से कोई साधारण आदमी जी नहीं सकता। साधू बाबा को भी बहुत मुश्किल से बचाया गया।

अब जनता का रोष इस घटना के खलनायक पण्डाजी पर आ पड़ा। सभी उसे मारने के लिए तैयार हो गये। इस समय विक्षुब्ध जनता की रोषाग्नि से उन्हें उसी महामानव ने बचाया, जिनको कुछ ही समय पहले वही पण्डाजी मौत के घाट उतार रहे थे। अपराधी इस पण्डाजी को दोनों हाथों से घेरकर रूष्ट जनता से बचाते हुए उन्होंने कहा, “अगर इसे मारना चाहो तो मारो, लेकिन इससे पहले मुझे इस मन्दिर को छोड़कर चले जाने दो। और यदि मुझको चाहते हो तो इसके शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचाओ.....।”

बाबा की यह बात सुनकर जनता स्तब्ध रह गयी। यह कैसी बात? इसका अपराध जो गम्भीर है। विशेषकर बाबा को ही तो सबसे ज्यादा रोष होना चाहिए, क्योंकि उन्हें ही तो.........। अन्त में सबने मिलकर यही निर्णय लिया कि इसे प्रहार नहीं किया जायेगा, लेकिन इस मन्दिर में रहने भी नहीं दिया जायेगा, इसे इस स्थान को त्यागकर जाना पड़ेगा। दो-चार लोग पण्डाजी को  साथ में लेकर गये और उन्हें दानापुर गाड़ी[1] में चढ़ा दिया। जाने के समय बाबा ने हाथ जोड़कर उन्हें रामनवमी के उत्सव में आने का आमंत्रण दिया।

 बाबा का यह आमंत्रण पण्डाजी ने रखा था। श्रीरामनवमी के महोत्सव में बाबा लगातार दस दिनों तक मौन धारण कर रखते थे— उपवास के साथ ही। “नगीना बाबा” को एक कुटिया में स्थान दिया गया। उत्सव में बहुत भारी संख्या में देश-विदेश से भक्तों का समागम... तरह-तरह के कार्यक्रम..., मौन रहकर भी बाबा को क्षणमात्र के लिए विश्राम नहीं। इन सबके बीच समय-समय पर लिख रहे हैं— “नगीना बाबा को चाय दी गयी?... नगीना बाबा को थोड़ा दूध भेज दो.....” आदि। इतनी व्यस्तता में भी उनके प्रति कितनी सजग दृष्टि।

बिलकुल बुढ़ापे में, शरीर छोड़ने से कुछ दिन पहले शक्तिहीन “नगीना बाबा” बाबा के आश्रय में पहुँचे। उस समय बाबा के द्वारा की गयी सेवा एक आश्चर्य का विषय था। जैसे बुढ़ापे में पहुँचे पिता की सेवा पुत्र कर रहा हो। ठीक समय पर गर्म पानी, दूध, फल का रस उनकी कुटिया में भेजा करते थे। नियमित रूप से डॉक्टर आकर जाँच कर जाते थे। दिन में तीन-चार बार करके उनकी छाती, पीठ, हाथ-पैरों में गर्म तेल से मालिश की जाती थी। एक दिन की बात है। शाम के समय सहदेव छुट्टी लेकर कहीं गया था। ठीक समय पर बाबा खुद गर्म तेल का कटोरा लेकर उनके पैरों तले बैठ गये और अपने ही प्राण संहार प्रयासी पण्डा के पैरों पर मालिश करने लगे। यह समः शत्रोच मित्रेनका कितना ज्वलन्त निदर्शन है!

नगीना बाबा के शरीर छोड़ने पर बहुत धूमधाम से बाबा ने उनका सत्कार आदि सम्पन्न किया था। मानो सुप्रचीन भारत के क्षमा के अवतार ऋषि वशिष्ठ देश और काल की सीमा को लाँघकर पुनः आविर्भूत हुए हों, हिंसा और विद्वेष के प्रतिमूर्ति विश्वामित्र के शत अपराधों को भी जिन्होंने क्षमा ही किया।  

इस घटना के बहुत दिनों बाद की बात है। एक शाम बाबा की कुटिया में कुछ विशिष्ट लोग बैठे हुए थे। बातचीत के सिलसिले में स्वयं लिखन, प्रेततत्व आदि की चर्चा चल पड़ी। अचानक एक ने पूछा, “शरीर छोड़ने के बाद नगीना बाबा की क्या परिणति हुई— उन्हें मुक्ति मिली या नहीं?

बात सुनकर बाबा ठहाका मारकर हँस पड़े। वेदी पर उठ बैठे और कहने लगे—

“तब सुनो। यह एक बहुत मजेदार कहानी है। नगीना बाबा के शरीर छोड़ने के करीब पन्द्रह दिनों के बाद की बात है। आरती हो जाने के बाद रसोईघर के पीछे मैदान गया था। देखा एक बड़े पत्थर पर एक बूढ़ा आदमी अन्धेरे में बैठा हुआ था। चिल्लाकर पूछा, “ऐ, कौन है वहाँ? सहदेव जल्दी ही लालटेन लेकर दौड़ आया। इतने में वह आदमी जैसे हवा में घुल-मिल गया! चारों तरफ खेजकर भी उसका पता नहीं चला।

“उसी रात की बात है। बरामदे पर सोया हुआ था। रोने की आवाज से नीन्द टूटी। बरगद की तरफ से आवाज आ रही थी। विश्वनाथ कुछ दूरी पर सोया हुआ था। उसे उठाकर देखने के लिए कहा। बेचारा टॉर्च लेकर बरगद के पास गया, लेकिन वहाँ कुछ नहीं पाकर लौटकर फिर सो गया। मैं लेकिन निश्चिन्त न हो सका। मन में यह आने लगा कि जैसे कोई मुझसे कुछ कहने का प्रयास कर रहा है, लेकिन मौका न मिलने के कारण वह निराश हो रहा है।

“आसन पर बैठ गया। मन को एकाग्र करते हुए सूक्ष्म जगत के साथ इसका संयोग स्थापन करने का प्रयास करने लगा। सूक्ष्म जगत में देहमुक्त आत्माओं का जो पारलौकिक स्तर है, उसमें प्रवेश पाने की चेष्टा की। कुछ ही क्षणों में अनुभव किया कि मन स्थूल छोड़कर सूक्ष्म के उस स्तर में प्रवेश कर चुका है। अब उस महाशून्यता को उद्देश्य कर पूछने लगा, ‘कौन हो तुम? क्या कहना चाहते हो? मुझसे क्या चाहते हो?

“उस विराट शून्यता के स्तर को भेदकर मन के तंत्री में एक क्षीण स्वर ने आघात किया, ‘बाबा, बंगाली बाबा, मुक्ति दो— बहुत तकलीफ।’ अस्पष्ट होने पर भी वह स्वर बहुत परिचित-जैसा लग रहा था, लेकिन समझ में नहीं आया कि कौन मुक्ति चाह रहा है? क्या तकलीफ है उसकी? अचानक भण्डारघर में ताक से एक थाली गिर पड़ने की आवाज से सूक्ष्म अतीन्द्रिय जगत के साथ संयोग टूट गया।

“इसके कुछ ही दिनों बाद की घटना है। रात में विशेष कोई नहीं था। एक-दो आदमी जो थे, बरसात के कारण धर्मशाला में सोये हुए थे। आधी रात में फिर वही रोने की आवाज! नीन्द टूट गयी। उसी वटवृक्ष की तरफ से आवाज आ रही थी।

“इस बार किसी को फरमाइश नहीं किया, पानी की फुहार पड़ रहीं थीं, आसन से उठकर वटवृक्ष की तरफ बढ़ा। अरे! वही तो, आधे अन्धेरे में मालूम हो रहा था... एक शीर्ण शरीरधारी मनुष्य बैठा हुआ था... सीमेण्ट की बनी बेंच पर पैर लटकाकर... और फफक-फफक कर रो रहा था... ।

“निःशब्द होकर नजदीक जाकर खड़ा हुआ। अन्धेरे के कारण यह एक मनुष्य है— यह भी मुश्किल से समझ में आ रहा था। अब रहा नहीं गया— जोर की आवाज में पूछा, “कौन हो तुम? क्यों रोते हो?

“अब उस मूर्ति ने चेहरा उठाया। उसी क्षण अचानक बिजली चमकी। उसकी रोशनी में अब पहचानना कठिन नहीं रहा। वही पिचके हुए गाल, एक चक्षु, लम्बा चोगा पहने हुए नगीना बाबा को पहचानने में क्या गलती हो सकती थी? लेकिन यह कुछ ही क्षण की बात थी। बहुत जोर की आवाज के साथ बादल गरजे। कुछ कहने के लिए बेंच की तरफ ताका— कहाँ नगीना बाबा? वह बेंच खाली पड़ी हुई थी।

“आसन पर लौट आया। अब सोना सम्भव नहीं था। सूक्ष्म प्रणायाम द्वारा चित्त को स्थिर कर उस अशरीरी के उद्देश्य से कहने लगा, हे विदेही, तुम्हारे सभी कृतकर्म जनित फलभोग जगन्माता की इच्छा से लयप्राप्त हो जाय। तुम सन्तुष्ट हो जाओ। तुम्हारी देहमुक्त आत्मा उस परलोक में सदा के लिए शान्ति प्राप्त करे।

“कुछ ही दिनों के बाद एक आदमी गया जाने से पहले मिलने आया। मैं भी यही चाह रहा था। उसे नगीना बाबा के उद्देश्य से विष्णुपाद में एक पिण्डदान कर देने के लिए कहा। इसके बाद फिर कभी नगीना बाबा को नहीं देखा नहीं गया। उसने कुछ भी किया हो, कम-से-कम माँ के मन्दिर में दीर्घकाल से साँझ-बत्ती आदि देकर इस स्थान की रक्षा तो की थी। इसपर विष्णुपाद में उसके उद्देश्य से पिण्ड भी दिया गया। खाली कुछ ही कृतकर्म के कारण उसकी आत्मा यहाँ बद्ध रह गयी थी।”

 

(टिप्पणी: ध्यान रहे, यहाँ कृतकर्मकहा गया है, अर्थात् किये गये कर्म। ऐसा न समझा जाय कि क्रियाकर्मयानि अन्तिम संस्कार में कमी रह जाने से किसी की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती। अन्तिम संस्कार एक तरह का कर्मकाण्ड मात्र है— संतुष्टी के लिए। मुक्ति निर्भर करती है— जीवन में किये गये कर्म पर।)



[1] बरहरवा रेल-स्टेशन से गुजरने वाली ‘दानापुर फास्ट पैसेन्जर ट्रेन’, जो उन दिनों हावड़ा-पटना (दानापुर) के बीच चलती थी।

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