एक साल के वृक्ष के नीचे स्थापित तीन पिण्डियों की
पूजा सदियों तक होती रही। पहले यह क्षेत्र जंगल था। बस्तियों से आने वाले
श्रद्धालु सुरक्षा व्यवस्था के साथ यहाँ आते थे। आस-पास की पहाडि़यों तथा पहाड़ की
तलहटी में रहने वाले आदिम जनजाती के लोग भी यहाँ पूजा करते थे। समय के साथ-साथ
जंगलों की सफाई हुई, छोटा-सा मन्दिर बना, मन्दिर तक पहुँचने के लिए सीढि़याँ भी बनीं और
यहाँ पूर्णकालिक पुजारी रहने लगे।
सीढि़यों के किनारे एक
कुआँ बना, जिसका पानी दूधिया, मीठा तथा स्वास्थ्यवर्द्धक है। कहते हैं कि सुखाड़
के समय “पहाड़ी बाबा” ने माँ बिन्दुवासिनी का नाम लेकर एक बताशा इस कुँए में डाल दिया था।
फिर कभी इसका पानी नहीं सूखा। उल्लेखनीय है कि आज इस कुएँ से प्रतिदिन- बिना नागा-
प्रायः पन्द्रह हजार लीटर जल निकाल कर बरहरवा के घरों में पहुँचाया जाता है। चैत्र
रामनवमी में महीने भर तक चलने वाले मेले को भी इसी कुएँ से जलापूर्ति की जाती है।
यहाँ रहने वाले पुजारियों
में गुलगुलिया बाबा, फिर झटपटिया बाबा का नाम लिया जाता है। बाद में आये नगीना बाबा, जो कि रिटायर्ड एक्साईज
सिपाही थे। वे यहाँ दस वर्षों तक रहे। अब तक चैत्र रामनवमी का महोत्सव यहाँ मनाया
जाने लगा था। फिर भी, कुल मिलाकर मन्दिर का स्वरुप स्थानीय ही था। इसे प्रसिद्धी
दिलायी ‘‘पहाड़ी बाबा’’ ने, जो 1960 में बंगाल से यहाँ आये।
“पहाड़ी बाबा” सिर्फ आध्यात्म की बातें
नहीं करते थे, बल्कि लोगों की व्यक्तिगत व पारिवारिक समस्याओं को भी बड़े
मनोयोग से सुनते थे और उनका समुचित समाधान सुझाते थे। शैक्षणिक, साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक- सभी प्रकार
की गतिविधियों में वे सम्मिलीत होते थे और उन्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करते थे।
शीघ्र ही उनके भक्तों की संख्या बढ़ने लगी और उसी अनुपात में बढ़ने लगा मन्दिरों
का आकार। संगमरमर के फर्श वाला भव्य मन्दिर बना (हालाँकि शिखर पुराना ही रहा), रसोईघर बना, यज्ञशाला बनी, गुरूमन्दिर, गौशाला, वानप्रस्थ आश्रम, बच्चों का पार्क (बाबा की
कुटिया के बगल में झूले, फिसलपट्टी लगे थे- अब नहीं रहे), सन्यासियों का समाधिस्थल, दीक्षा कुटीर- काफी कुछ
यहाँ बन गया।
रामनवमी महोत्सव ने विराट रुप धारण किया। पंचमी से
नवमी तक शतचण्डी महायज्ञ होने लगा और इस दौरान पहाड़ी के सामने मैदान में मेला
लगने लगा। अनगिनत लोग इस दौरान खिचड़ी के रुप में माँ का प्रसाद पाते थे। दूर-दूर
से विद्वज्जन आकर इस अनुष्ठान में सम्मिलीत होते थे।
आषाढ़ मास में गुरू
पूर्णिमा का उत्सव धूम-धाम से मनाया जाने लगा, जिसमें हजारों लोग खिचड़ी, सब्जी और आमड़े की
स्वादिष्ट चटनी का महाप्रसाद पाते थे।
गोपाष्टमी की सन्ध्या
गौशाला मेले का आयोजन शुरु हुआ, जिसमें आस-पास के ग्रामीण अपने पालतू पशु-पक्षियों
का प्रदर्शन कर (प्रखण्ड कार्यालय के सहयोग से) पुरस्कार पाते थे। ... इस प्रकार, छोटे-से बिन्दुवासिनी
मन्दिर ने सुगठित, सुसंचालित ‘बिन्दुधाम’ का रुप ग्रहण किया।
ऊपर वर्णित उत्सवों तथा परम्पराओं का पालन आज भी
किया जाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें