प्रसंग-6

“मैं तो कलाई दाल खाऊँगा”

श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार

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बाबा दोपहर में भोजन पर बैठे हैं। खाना परोसा गया। अचानक अभिमानी बालक-जैसा हाथ उठाकर वे बोले, “कलाई का दाल खाऊँगा।” सेवक ब्रह्मचारी जी विडम्बित हुए। पहले तो कुछ नहीं कहा— अब अचानक कलाई दाल कहाँ से मिले? लेकिन यह पद न मिलने पर माँ विन्दुवासिनी के ये लाड़ले तो खाना खायेंगे ही नहीं!

थाली सामने लेकर बाबा बैठे ही हैं। ग्रीष्मकाल की भरी दुपहर। अचानक पसीना-पसीना होकर कुटिया में प्रवेश किया बरहरवा वाली एक दीदी ने। हाथ में “टिफिन-कैरियर।” बाबा के लिए कुछ पकाया हुआ भोज्य पदार्थ लायी हैं। इस कड़ी धूप में बरहरवा से प्रायः दौड़ती हुई आयी हैं— इस शंका से कि समय पर नहीं पहुँचने पर बाबा का भोजन हो जा सकता है।

बालक के समान उत्सुकता के साथ बाबा टिफिन-कैरियर खोलते हैं। ऊपर की दो कटोरी में दो-तीन प्रकार की सब्जियाँ, नीचे की कटोरी में कलाई की दाल। आनन्दमय पुरूष बाबा ने अब बहुत खुशी के साथ कलाई की दाल के साथ भोजन आरम्भ किया। इतना कष्ट सहकर जो उनके लिए इतनी सामग्रियाँ लेकर आ रही थीं, करूणामय अन्तर्यामी उन्हें छोड़कर कैसे भोजन कर लेते? इस छोटी-सी घटना में जो अलौकिक चमत्कार था, उसका मूल्य उनके पास भले ही कुछ नहीं, लेकिन इस घटना के उपस्थित साक्षी भक्तों के लिए इसका मूल्य कम नहीं था।

 

(टिप्पणी: कलाई अर्थात् उड़द की दाल। घटना में जिन ‘बरहरवा वाली दीदी’ का जिक्र आया है, वे सुश्री माया सिन्हा थीं— बरहरवा हाई स्कूल में अध्यापक रहे दिनेशबाबू की सुपुत्री। उनके माध्यम से यह भी पता चलता है कि भोजन पर पहाड़ी बाबा अकेले नहीं बैठे थे, बल्कि 14-15 अन्य लोग भी पंगत में बैठे हुए थे, जिनमें (स्व.) दिलीप साव भी थे। सभी 10-15 मिनट से भोजन के सामने बैठे इन्तजार कर रहे थे। दाल 3-4 लोगों के खाने लायक थी, फिर भी बाबा ने सबको वह दाल देने के लिए कहा और आश्चर्यजनक रूप से उतनी ही दाल में सबका भोजन सम्पन्न हो गया।)

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