काहे बिल्ली रास्ता काटे
-अनाथानन्द
श्री डी0एन0 पाण्डेय, अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, पटना द्वारा (‘अनाथानन्द’ नाम से) रचित पुस्तक “जाने अनजाने प्रसाद के दो दाने” से कुछ अध्याय पहले भी आप मन-मयूर में पढ़ चुके हैं। इस बार उसी पुस्तक से एक रोचक अध्याय . . .
गुरु-पूर्णिमा आने वाली थी। मन उल्लास से भरा था। बरहरवा बिन्दुधाम जाने
की तैयारी कर रहा था। कोर्ट से आया था। रामकिशोर सिंह (जवायत संग्रामपुर-मुँगेर)
मेरे घर पधारे थे। रोड नं0 1, राजेन्द्र नगर,
पटना में उस समय मेरा एक छोटा डेरा था। वकालत वहीं से
आरम्भ किया था। रामकिशार सिंह अपने एक केस के बारे में पता लगाने के लिए आये थे।
पटना हाई कोर्ट में उनका केस लम्बित था। जमीन का मुकदमा था। गुरुधाम जाना था- यह
मैंने तय कर रखा था। चाय-नाश्ते की तैयारी हो रही थी। मैं अपना कोट और कपड़ा खोल
रहा था। तभी तुंगेश्वर प्रसाद सिंह, मकान मालिक कहीं
से चले आये। जलपान में वे भी शरीक हो गये। बात मेरी ओर से ही शुरु हुई। मैंने ही
कहा कि ‘रामकिशोर, इस बार बरहरवा चलो। अभी तुम्हारे केस में देर है।’ मैंने अपने मकान मालिक तुंगेश्वर बाबू से भी कहा कि आप भी बरहरवा चलें।
किन्तु तुंगेश्वर बाबू ने कहा, ‘‘नहीं, कल पूर्णिमा है। हरिहर क्षेत्र के मेले में चलें। भगवान शिव
पर जल चढ़ायें।’’ वे अपनी जिद पर अड़ गये। बात न
बिगड़े इसलिए मैंने ‘बुझउअलि’ (‘टॉस’ की तरह निर्णय करने की एक विधि)
द्वारा इसका निर्णय करने का सुझाव दिया। एक उँगली पर हरिहर क्षेत्र और दूसरी पर
बरहरवा बिन्दुधाम रखा जायेगा। तुंगेश्वर बाबू जिस स्थान वाली उँगली पकड़ेंगे,
वहीं चला जायेगा। मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। उन्होंने
दो बार उँगली पकड़ी ओर दोनों बार वही उँगली पकड़ी, जिसका मतलब बरहरवा चलना था। जब मैंने निर्णय सुनाया तो वे झल्ला गये और
बोले, ‘‘पाण्डेय जी, आप झूठ बोल रहे हैं।’’ अब उन्होंने
रामकिशोर से उँगली पकड़वाने को कहा। अबकी बार भी वही परिणाम हुआ। उन्होंने
रामकिशोर की वही उँगली पकड़ी, जिस पर उसने
बरहरवा जाने की बात सोच रखी थी। अब तुंगेश्वर बाबू ने कहा कि आप दोनों आदमी
बारी-बारी से मेरी उँगली पकड़ें। जब हमलोगों ने बारी-बारी से उनकी उँगली पकड़ी तो
वे ठहाका मारकर हँस पड़े। उन्होंने कहा, ‘‘आप दानों
आदमी हार गये। हरिहर क्षेत्र चलना है।’’ भवितव्यता
अपनी ओर खींच रही थी। बात तय हो गयी कि हरिहर क्षेत्र जाना है। मैं विवश था।
क्योंकि तुंगेश्वर बाबू मकान मालिक थे, स्वजन भी
थे, मुझे भाई की तरह मानते थे। किन्तु भीतर-भीतर
मन कचोट रहा था। काश, तुंगेश्वर बाबू का मन विधाता बदल
देते! अगर उनका मन बदल जाता, तो शायद इतनी
भयंकर घटना नहीं होती। पर काल की गति को कौन जानता है?
बरहरवा बिन्दुधाम नहीं जा सका। दिन के दस-ग्यारह बजे होंगे।
तुंगेश्वर बाबू ऊपर से नीचे आये और बोले,
‘‘पाण्डेय जी चलिए, नाव से जाना है। पता नहीं जहाज मिलेगा या नहीं।’’ मेरी जाने की इच्छा नहीं थी। गुरुधाम जाने का मोह अभी भी पूरी तरह नहीं
मिटा था। किन्तु तुंगेश्वर बाबू ने बहुत हठ किया। मैं अपने ऑफिस के कमरे से भीतर
गया, जहाँ बाबा की तस्वीर थी, लाहिड़ी बाबा की तस्वीर थी, बाबा जी महाराज की तस्वीर थी, और भी कई
तस्वीरें थीं। मैंने प्रणाम किया, अपने गुरुओं को
और माँ काली को, किन्तु ज्योंही पूजा घर से ऑफिस में
आया, एक काली बिल्ली ने रास्ता काटा।
मैंने कहा, ‘‘तुंगेश्वर बाबू!
अब हरिहर क्षेत्र जाना ठीक नहीं है। बिल्ली ने रास्ता काट दिया।”
तुंगेश्वर बाबू ने कहा, ‘‘धत्त, आप बिल्ली से डर गये। चलिए, चलिए, कुछ नहीं होगा।’’
अपने पूजाघर में पुनः गया और पूर्ववत् प्रणाम किया। जाने के
लिए बाहर निकलते ही उसी बिल्ली ने, जो जँगले पर बैठी
थी, फिर रास्ता काटा।
अब तो मैं तय कर चुका था कि किसी भी कीमत पर नहीं जाना है,
किन्तु तुंगेश्वर बाबू ने जिन्हें मैं तुंग बाबू कहता था,
कहा कि अब जाने का तय हो चुका है तो जाना ही है। अन्यथा
मैं अकेले चला जाऊँगा। लाचार होकर रामकिशोर और मैं उनके पीछे चल पड़ा। अभी हमलोग
दूसरे कमरे को, यानि ऑफिस के कमरे को पार ही कर रहे
थे कि उस बिल्ली ने पुनः बरामदे से ही छलाँग लगाकर रास्ता काटा।
मैं भयभीत था। रामकिशोर भी अब जाने के लिए तैयार नहीं थे। किन्तु
तुंग बाबू आगे बढ़ गये और मकान की गेट पर खड़े होकर हमलोगों को बुलाने लगे।
हमदोनों उनके पास गये। मन किसी भावी दुर्घटना की आशंका से काँप रहा था; न जाने आगे क्या होने वाला है!
हम तीनों हरिहरक्षेत्र पहुँचे। तुंगेश्वर बाबू के एक संबंधी गंगा के उस पार
सबलपुर गाँव में रहते थे। हम तीनों ने उन्हीं के यहाँ भोजन किया। तुंग बाबू के
संबंधी भी साथ हो गये। अब तीन से हम चार हो गये। तुंग बाबू ने कहा कि तीन की
यात्रा ठीक नहीं होती है- ‘तीन टिकट महाविकट’। हम चारों आदमी मेले में पहुँचे।
पूर्णिमा का मेला। मेले में जन-सैलाब उमड़ रहा था। संध्या की
बेला थी। सूरज धूल से ढँक चुका था। मेले में धूल का गुब्बार ऊपर से और भयंकर। हाथी
का मेला, बैल-घोड़ों का मेला, गाय-भैंसों का मेला, चिडि़यों का मेला,
कौन इतना घूमे! धीरे-धीरे रात होने लगी। हमलोगों ने किसी
प्रकार बाबा हरिहरनाथ का दर्शन किया और अब हमलोग मन्दिर के बाहर हो चुके थे। तुंग
बाबू ने कहा, ‘‘चलिये, हाजीपुर के पास मेरे एक सम्बन्धी हैं, वहीं रात में ठहरेंगे।’’ किन्तु इसके लिए
न मैं तैयार था और न रामकिशोर। हमदोनों इधर-उधर घूमते हुए, रात की जहाज पकड़कर पटना चले आये। और तुंग बाबू और उनके सम्बन्धी अपने
किसी और सम्बन्धी के यहाँ चले गये। रात के बाद सुबह हुई। दिन किसी प्रकार से कटा।
पुनः रात हुई और वह रात भी कट गयी। अभी दिन में पूरी तरह से गर्मी भी नहीं आयी थी
कि सारा मकान क्रन्दन से गुंजित हो गया। तुंग बाबू के सम्बन्धी जिनके साथ तुंग बाबू
थे, वह लौटकर आये थे और उन्होंने कहा कि तुंग
बाबू मृत्यु शैय्या पर हैं। मैसेज दे दिया गया है। पहले कॉलरा हुआ और फिर लकवा मार
दिया। हाजीपुर अस्पताल में भर्ती दिया गया है। उनके बाल-बच्चे सभी रो रहे थे। उनकी
बूढ़ी पत्नी मुझे पकड़कर रोने लगी और वह यह कहकर रो रही थी, ‘‘पाण्डेयजी, वो आपके साथ गये,
किन्तु आप उनको कहाँ छोड़ दिये? आप उन्हें जैसे ले गये थे, वैसे ले आईये।’’
बात सब उल्टी थी। तुंग बाबू को तो हम मना कर रहे थे कि
नहीं जाना है। वह स्वतः गये। सत्य तो यह था कि वे जिद पर अड़े थे। और हमलोग विवश
होकर उनके साथ गये थे। मैं सबकुछ कह रहा था किन्तु मेरी सुनने वाला कौन था।
धीरे-धीरे मैंने सबको समझाया, किन्तु जैसी-तैसी
अवस्था में हमलोग हाजीपुर अस्पताल पहुँचे। तुंग बाबू के लड़के भी साथ थे। अस्पताल
पहुँचे तो देखे कि तुंग बाबू की लाश सामने प्रांगण में पड़ी थी। हिम्मत नहीं हो
रही थी कि हमलोग मुँह पर से कपड़ा उठावें। किन्तु हम सब कोई आगे बढ़े और जब कपड़ा
मुँह परसे उठाया, तो मैंने कहा कि श्वांस चल रही है।
थोड़ी-सी आशा बँधी। किन्तु ऐसी साँस की आशा क्या? जो कि बीच-बीच में बन्द हो जाती थी। आवाज बिलकुल बन्द थी। नाक
और मुँह से झाग निकल रहा था। हाथ-पाँव में कहीं स्पन्दन नहीं था। अन्तिम निर्णय
हुआ कि घर ले चलें। सबसे दर्शन तो हो जायेंगे। तुंग बाबू का शरीर भारी था। हाजीपुर
की गण्डकी नदी के किनारे, महावीर चबूतरा के
पास तुंग बाबू को रखा गया और नाव की खोज होने लगी कि उस पार नाव से चला जाय।
महावीर चबूतरे पर तुलसी का एक विशाल झंगाठ पौधा था। मैंने अपने गुरु का नाम लिया।
तुलसी का दल तोड़ा, चुल्लू में गण्डकी का पानी लिया और
तुलसी के पत्ते साथ में थे, गुरु का नाम लेकर
उनके मुँह में डाला। किन्तु न तुलसी का दल भीतर गया और न गण्डकी का जल। हमलोग
निराश तुंग बाबू का भारी-भरकम शरीर उठाकर नाव में डाल दिये। जो कि तीन दिन पहले
हँसता था, वह अब एक लाश की तरह नाव में पड़ा था। सभी
लोग दुखी थे। और जब मैं यह कहता था कि बिल्ली ने तीन बार रास्ता काटा था तो सब कोई
आश्चर्य से सुनते थे और कहते थे, ‘‘पाण्डेय बाबू
भाग्य की विडम्बना को कौन जानता है?’’ काश! तुंग
बाबू आपकी बात मान लिये होते तो यह दुर्दशा तो नहीं होती।’’
अब नाव पटना घाट पर लग चुकी थी। फिर उनके भारी-भरकम शरीर को
हमलोग उतारे और वहाँ भी गुरु का नाम लेकर गंगा जल और तुलसी उनके मुँह में डाला।
किन्तु सब बाहर निकल आया।
गौरी बाबू जो उनके दामाद थे, सबकुछ देख रहे थे। सबकी आँखों में आँसू थे। अब सवाल था कि घर ले चलें या
अस्पताल। अन्त में हमलोग सब इन्हें अस्पताल ले आये। और अस्पताल के बाहर उनको लिटा
दिये। सब कोई नाश्ता करने चले गये और मैं वहीं बैठा था। कभी गुरु, कभी महावीर जी, कभी माँ का नाम
लेता था। अचानक उनको जोर की टट्टी हुई, मेरी समझ
में नहीं आ रहा था कि क्या करुँ? साँस आ चुकी थी
और हमलोग उनको अस्पताल में भर्ती करा दिये। थोड़ा-थोड़ा ठीक हुए तो राजेन्द्रनगर
उनके निवास स्थान पर लाया गया। उनके गुरु महाराज भी आ गये और उन्होंने कहा,
‘‘पाण्डेय जी बरहरवा जाकर अपने गुरु का आशीर्वाद ले आयें।’’
उनकी पत्नी ने भी कहा और मेरे मन में भी हुआ कि बाबा
मुझे कलंक से बचायें।
मैं बरहरवा गया। फिर बाबा मेरे ऊपर बिगड़ गये और जब बार-बार
कहा तो बाबा ने कहा, ‘‘ऐसा कोई घर में, परिवार में चाहे उनकी पत्नी, बेटा, भाई है तो मिट्टी के शिवलिंग पर उनके
हाथ से कच्चा दूध चढ़वाये और उस दूध को पीकर यह कहे कि ‘हे काल, हे शिव, इनके बदले मेरे प्राण ले’।’’
तब मैंने कहा, ‘‘अगर कोई तैयार न
हो तो?’’ बाबा ने कहा, ‘‘कोई पण्डित अगर महामृत्युंय का पाठ करे, निर्दिष्ट वस्त्र पहने और उनके हाथ से महामृत्यंजय का मंत्र ले, तो उनका कल्याण होगा। पण्डित जी को भी हरा वस्त्र पहनाना होगा
और आठ आने भर से ज्यादा की अँगूठी उनके हाथ से इक्कीस दिन बाद, दान कराओ। उनका कल्याण होगा।’’ बाबा ने अपने बिस्तर से उठाकर एक फूल दिया और कहा, ‘‘उसके सिरहाने रख देना।’’ साथ में हिदायत दी कि मैं कुछ न करुँ। न जाने बाबा मुझे क्यों मना किये।
पटना आकर सब कुछ उनके गुरु महाराज, उनकी पत्नी और बच्चों से कहा। कोई भी तैयार नहीं हुआ कि उनके हाथ से दूध
ले और उनके बदले अपना प्राण दे। बाद में पण्डित जी को बुलाया गया। पण्डित जी यथावत
जप किये। हरा वस्त्र पहने। इक्कीस दिन बाद भव्य अँगूठी उनको दान में मिली। किन्तु
अफसोस कि पण्डित जी चल बसे। और तुंग बाबू चंगे हो गये। तुंग बाबू उसके बाद गाड़ी खरीदे,
आनन्द मनाये। किन्तु वह अभागा पण्डित संसार से कूच कर
गया।
संसार में कोई किसी का नहीं होता है। यह पण्डित का बलिदान ही
था, क्योंकि उन्होंने मौत का आलिंगन किया। बाबा
की तस्वीर आज भी रोड नं. एक, राजेन्द्रनगर में है। जबकि मैं उस मकान को छोड़ चुका हूँ,
किन्तु जब कभी उधर जाता हूँ तो अपने गुरु का नमन करता
हूँ। उस घर में बिल्ली ने तीन बार रास्ता काटा था। रामकिशोर अभी जीवित हैं।
तुंगेश्वर बाबू और उनके गुरु इस दुनिया में नहीं रहे। शायद कालान्तर में पूर्णिमा
के दिन ही तुंग बाबू का शरीर छूटा। किन्तु उनका परिवार आज भी है जो मेरे गुरु के
प्रति अनुग्रहित है और मेरे गुरु का स्मरण हर विपत्ती में करता है।
(साभार: “मन
मयूर”)
--ः0ः--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें