दूसरों की पीड़ा अपने पर
श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक ”परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार
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सुना जाता है कि महापुरूष लोग दूसरे के दुःख में व्याकुल होकर उसका भोग अपने ही शरीर में कर लेते हैं। शरणागत भक्त का दैहिक भोग अपने शरीर में आकर्षित कर भक्त को विपत्ती से मुक्त कर देते हैं। जीवन्मुक्त पुरूष बाबा के सामयिक शारीरिक रोग इन्हीं कारणों से होते थे। इस विषय का प्रकृष्ट प्रमाण मिला था इस घटना से:
एक दिन आश्रम जाकर देखा बाबा बुखार से पीड़ित होकर वेदी पर सोये हुए थे। पैरों के पास बैठकर धीरे-धीरे मैं उनके पैरों को सहलाने लगा। मालूम पड़ा, पैर के तलवे जगह-जगह से छिल गए थे और फफोला-जैसा पड़ गया था। इसका कारण पूछा। बुखार में करीब बेहोशी की अवस्था में, आँखें बन्द किए ही, अस्पष्ट स्वर में बाबा कहने लगे—
“नंगे पैर...... देवघर से बासकीनाथ...... रास्ता में बेहोश...... सभी बात में बाबा...... फफोला तो पड़ेगा ही..... ।“ उनके इन अधूरे शब्दों का अर्थ समझ में आया। किसी पैदल चलने वाले तीर्थयात्री के शारीरिक कष्टों को करूणामय बाबा अपने शरीर में भोग रहे थे।
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