‘‘पहाड़ी बाबा’’ नाम लोगों का दिया हुआ था। बरहरवा आने तक उनका नाम
ऊषानन्द गिरी था। 1960 के जेठ महीने में जब माँ के मन्दिर के पीछे वटवृक्ष के नीचे
उन्होंने अपनी धूनी रमाई, तब माँ की सेवा में पहले से तैनात नगीना बाबा ने इस जटाजूट
धारी बंगाली बाबा को पसन्द नहीं किया और किसी के पूछने पर तिरस्कार के साथ कहा कि ‘पता नहीं कहाँ-कहाँ से
चले आते हैं ये हरि-हरा!’ यह सुनकर बाबा ने अपना नाम ही ‘हरिहरानन्द गिरी’
रख लिया।
पहाड़ी बाबा ने तंत्र की दीक्षा तंत्राचार्य
शिवचन्द्र विद्यार्णव से ली थी। बाद में सत्यानन्द गिरी से उन्हें ‘क्रियायोग’ की दीक्षा मिली। इस
दीक्षा के कारण ही पहाड़ी बाबा लाहिड़ी महाशय तथा महावतार बाबा की परम्परा से
जुड़े।
बरहरवा आने से पहले बाबा बंगाल के मेदिनीपुर जिले
में झाड़ग्राम स्थित आश्रम में रहते थे। वहाँ उन्होंने एकबार बाढ़पीडि़तों के लिए
ऐसा राहत कार्य चलाया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरूजी स्वयं उनसे मिलने
मेदिनीपुर आये थे। दोनों ने साथ ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। इस दौरे
का एक फोटो अब भी बिन्दुधाम में सुरक्षित है।
बरहरवा में भी सुखाड़ एवं महामारी (1967) तथा
बाढ़ (1971) के समय बाबा ने दिन-रात एक करके राहत कार्य चलाया था। कहते हैं
कि उन्होंने स्वयं पीडि़त होकर प्रकृति को नियंत्रित किया था और तब से अब तक इस
क्षेत्र में सुखाड़, महामारी या बाढ़ का प्रकोप नहीं हुआ।
बाबा के आने से पहले यहाँ (मनोकामना पूर्ण होने
पर) लोग बकरे की बलि दिया करते थे। ऐसे लोगों से बाबा ने कहना शुरु किया, ‘बलि मत दो, और अगर तुम्हें लगता है
कि इससे तुम्हें पाप लगेगा, तो वह पाप मैं अपने ऊपर लेता हूँ। ...यही बात इस
बकरे के कान में कहकर इसे मुक्त कर दो।’ इस प्रकार, इस पहाड़ी पर बलि की प्रथा बन्द हुई।
बाबा की प्रेरणा से ही बरहरवा में कन्या उच्च
विद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने नामचीन कवियों को बुलवाकर न केवल कवि सम्मेलन
आयोजित करवाया, बल्कि उनकी और स्थानीय कवियों की कविताओं का एक संग्रह (“सफेद लहरें कुछ”) भी प्रकाशित करवाया।
जनजातियों के साथ समरसता प्रकट करने तथा उन्हें जागरुक बनाने के लिए उन्होंने
रामनवमी मेले में सन्थाली रामलीला तथा सिदो-कान्हू की जीवनी पर आधारित नाटकों का
मंचन करवाया। इस प्रकार, पहाड़ी बाबा इस क्षेत्र के हर आम और खास के अपने बन गये।
सुपात्रों को आध्यात्मिक दीक्षा तो वे खैर देते ही थे।
बरहरवा के बिन्दुधाम में बाबा बारह वर्षों तक रहे।
इस स्थल को भव्य रुप प्रदान करने के बाद एक दिन अचानक- जिस तरह वे कमण्डल लेकर यहाँ
आये थे उसी तरह- एक कमण्डल लेकर वे यहाँ से चले गये। कुछ समय बाद वे जयपुर में
प्रकट हुए। वहाँ उन्होंने ‘सत्यायतन आश्रम’ की नींव रखी। चार वर्ष वहाँ गुजारने के बाद
छिहत्तर वर्ष की आयु में 2 जुलाई 1976 को उन्होंने अपना शरीर त्यागा। उनके भौतिक शरीर
को हरिद्वार में गंगाजी में जलसमाधि दे दी गयी।
पहाड़ी
बाबा ने कभी चमत्कार दिखाने की कोशिश नहीं की, मगर
दैनिक जीवन में कुछ-न-कुछ ऐसी घटनाएँ घट ही जाती थीं, जिनसे लोगों को उनकी अलौकिक क्षमताओं का पता चलता था। ऐसी घटनाएँ सुनाने वाले
सैकड़ों लोग मिल जाते हैं। कुछ घटनाओं को सत्यायतन आश्रम, जयपुर द्वारा प्रकाशित दो स्मारिकाओं (“पहाड़ी बाबा स्मृति ग्रन्थ”) में लिपिबद्ध किया गया है। दो शिष्यों ने अपने-अपने संस्मरण
के आधार पर उनपर पुस्तकें भी लिखी हैं। पटना उच्च न्यायालय में वरीय अधिवक्ता श्री
डी0एन0 पाण्डेय ने ‘अनाथानन्द’ नाम से ‘‘जाने-अनजाने प्रसाद के दो दाने’’ पुस्तक की रचना की है; तो एस.पी. कॉलेज, दुमका
में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष श्री कल्याण कुमार राय की पुस्तक का नाम ‘‘परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)’’ है।
पहाङी बाबा आश्रम से कैसे संपर्क हो सकता, बचपन मे मै आश्रम जाती थी, उस समय बाबा वही रहते थे
जवाब देंहटाएंआश्रम की गतिविधियो की जानकारी उपलब्ध करवाये,क्या वहाँ जाना संभव है
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