बरहरवा में ठहरने के लिए एक समय में सिर्फ एक धर्मशाला (मेन रोड पर) हुआ करती थी, बाद में लॉज बने और अब यहाँ अच्छे होटल भी हैं। यहाँ रहते हुए आस-पास के निम्न दर्शनीय स्थलों का भ्रमण किया जा सकता है:
ऐतिहासिक नगरी— राजमहलः बरहरवा से छब्बीस किलोमीटर उत्तर-पूर्व। रेल से वाया तीनपहाड़ तथा रोड से वाया उधवा जुड़ा। गंगातट। माघी पूर्णिमा में गंगातट पर मेला। मुगलकाल में दो बार बँगाल की राजधानी रहने का गौरव हासिल। अकबर के समय बँगाल के सूबेदार रहे मानसिंह (1580-1600) द्वारा निर्मित ‘संगी दालान’, अंग्रेजों द्वारा निर्मित ‘नीलकोठी’ (अब इसका अस्तित्व नहीं रहा), ‘बारहद्वारी’ के खण्डहर (अब इसमें भी बस्ती बस गयी है)। सात किलोमीटर दूर मंगलहाट में मुगलकालीन भव्य ‘जामी मस्जिद’— पुरातत्व विभाग ने आधा ध्वस्त हो चुकी इस विशाल मस्जिद का पुनर्निर्माण किया है और यहाँ पार्क भी बनाया है। यहाँ से भी पाँच किलोमीटर दूर ‘कन्हाई नाट्यशाला’ (बोलचाल में ‘कन्हैया स्थान’), जहाँ अपनी रूठी राधा को मनाने के लिए कृष्ण ने नृत्य किया था। बाद में चैतन्य महाप्रभु ने— वृन्दावन जाने के क्रम में— यहाँ प्रवास किया। वर्तमान में ‘इस्कॉन’ के अधीन। कन्हैया स्थान के पीछे मछुआरों को कुछ किराया देकर गंगा-विहार का भी आनन्द लिया जा सकता है।
प्रसंगवश, बता दिया जाय कि राजमहल में ही (बादशाह औरंगजेब के पोते, बँगाल के गवर्नर) अजिमुस्सान तथा अँग्रेजों के बीच 13 नवम्बर 1698 को 16,000 रूपये में करार हुआ था, जिसके तहत गोविन्दपुर, सुतानाति तथा कोलिकाता गाँव अँग्रेजों को सौंप दिये गये थे— यहीं से अँग्रेजों के पैर भारत में जमे!
मोती झरना, महाराजपुरः बरहरवा से पैसेन्जर ट्रेन से या सड़क मार्ग से वाया बाकुडीह-तीनपहाड़ होते हुए जाया जा सकता है। महाराजपुर स्टेशन बरहरवा से कोई चालीस किलोमीटर (साहेबगंज की ओर) दूर है। वहाँ उतरकर मैदानी/पहाड़ी रास्तेपर प्रायः तीन किलोमीटर ‘ट्रेकिंग’ करते हुए पहले ‘मोती झरना’ पहुँचना होता था, अब स्टेशन पर तिपहिया-चौपहिया वाहन मिल जाते हैं। प्रायः सौ फीट की ऊँचाई से गिरते जलप्रपात का आनन्द लिया जा सकता है। वर्तमान में पर्यटन विभाग द्वारा जलक्रीड़ा के लिए ‘स्वीमिंग टैंकों’ का निर्माण। विशेष भीड़ सावन में— खासकर, अन्तिम सोमवारी को— क्योंकि एक तो वर्षाकाल के कारण झरने में पानी का बहाव ज्यादा रहता है और दूसरे, यहाँ एक गुफा में शिवजी भी स्थापित हैं।
शिवगादी, बरहेटः बरहरवा से बीस किलोमीटर पश्चिम में बरहेट। राजमहल की पहाड़ियों पर से गुजरते सड़क मार्ग से मनोरम यात्रा। बरहेट बाजार से सात किलोमीटर का जंगली/पहाड़ी सफर। बीच में गुमानी नदी। सफर के अन्त में एक आश्चर्यजनक पहाड़ी गुफा के अन्दर विराजमान हैं शिव— ‘गजेश्वर’ नाम से। गुफा के बाहर प्राकृतिक झरना। सावन में भारी मेला। पर्यटन विभाग की ओर से सौन्दर्यीकरण।
उल्लेखनीय है कि बरहेट के पास ही ‘सन्थाल हूल’ के नायक सिदो-कान्हू भाईयों की जन्मस्थली भोगनाडीह है। यहाँ ‘सन्थाल हूल’ के बारे में बताना उचित होगा कि यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खिलाफ देश का पहला “सशस्त्र जनसंघर्ष” था। 30 जून 1855 को यह युद्ध शुरू हुआ था और 26 जुलाई 1855 के दिन अँग्रेजों ने सिदो-कान्हू भाईयों को भोगनाडीह गाँव में ही पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी थी।
फरक्का बराजः बरहरवा से बीस किलोमीटर दूर। ट्रेन से पहुँचा जा सकता है, अब टेम्पो वगैरह भी चलते हैं। गंगा नदी पर बने प्रायः दो किलोमीटर लम्बे बराज पर चलने का आनन्द लिया जा सकता है। दोनों तरफ गंगा की अगाध जलराशि— बेशक बरसात में। बाकी समय पानी की कमी से रेत के मैदान और टीले नजर आने लगते हैं।
राजबाड़ी, कोटालपोखरः पाकुड़ की ओर मात्र बीस मिनट का रेल सफर पूरा कर कोटालपोखर स्टेशन पर उतरा जा सकता है। यह सड़क मार्ग से भी जुड़ा है। जमीन्दार इस्माइल चौधरी का 1872 में निर्मित आलीशान महल देखा जा सकता है— हालाँकि पुनर्निर्माण के बाद अब इसे एक ‘रिसॉर्ट’ में बदल दिया गया है। सामने मैदान में सुन्दर नक्काशियों से भरी एक छोटी-सी मस्जिद और एक ‘स्मृति स्तम्भ’ भी देखने लायक— इन्हें संरक्षण की जरूरत है।
पतौड़ा झील, उधवाः राजमहल के रास्ते में पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क से किलोमीटर भर दूर एक झील। पक्षी अभयारण्य। शीत ऋतु में ‘प्रवासी’ पक्षियों का आगमन। पास में ‘बोटिंग’ की सुविधा भी की गयी है।
प्रसंगवश, जानकारी दे दी जाय कि उधवा के बीच से गुजरते ‘उधवा नाला’ (गंगाजी की एक धार) के किनारे 5 सितम्बर 1763 के दिन बँगाल के नवाब मीर कासिम तथा अँग्रेजों के बीच निर्णायक लड़ाई हुई थी, जिसे जीतने के बाद अंग्रेज कोलकाता से पटना की ओर बढ़े थे और और अगले साल अक्तूबर में बक्सर की लड़ाई में मीर कासिम, अवध के शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) की सेनाओं को हराने के बाद अँग्रेजों का बँगाल, बिहार, उड़ीसा पर आधिपत्य कायम हो गया था।
तेलियागढ़ी किला, करमटोलाः पुराने जमाने में बँगाल को देश के मुख्य हिस्से से जोड़ने का रास्ता गंगा तथा राजमहल की पहाड़ियों के बीच अवस्थित संकरे मैदानी गलियारे से होकर गुजरता था। जहाँ से पहाड़ियाँ शुरू होती थी, वहीं एक किला हुआ करता था, जो ‘बँगाल का प्रवेश द्वार’ कहलाता था। आज भी साहेबगंज स्टेशन के बाद वाले स्टेशन (पश्चिम की ओर) करमटोला में उतरकर इस किले के खण्डहरों को देखा जा सकता है। कभी इसका परिसर विशाल रहा होगा, लेकिन अब सिर्फ पहाड़ी पर कुछ खण्डहर बचे हैं, चहारदीवारी को तो डेढ़ सौ साल पहले रेल-लाईन बिछाते समय ही तोड़ दिया गया था।
(2024)
बरहरवा से चार किलोमीटर दुर एक छोटा सा गांव दिधी है
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