प्रसंग- 11

 

“भेजा खप्पराली?            

श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार

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बिन्दुवासिनी आश्रम में बाबा के अवस्थान के कुछ ही वर्षों में नित्य महोत्सव लगा ही रहता था। प्रतिदिन इतनी संख्या में भक्त दर्शनार्थियों का समागम होता था और इतने लोग प्रसाद (अन्न आदि) पाते थे कि उसका कोई लेखा-जोखा नहीं था। कितनी बार तो ऐसा भी होता था कि रात बारह बजे के बाद भी आगन्तुकों के लिए रसोईघर का ताला खालेकर भोजन का बन्दोबस्त करना पड़ता था। माँ अन्नपूर्णा का वाराणसी धाम ने ही जैसे बिन्दुधाम का रूप धारण कर लिया था। प्रतिदिन अन्नकूट महोत्सव लगा रहता था। अगणित अतिथि भक्त प्रसाद पा रहे हैं। इतना अन्नदान होते कहीं भी नहीं देखा। विशेष उत्सवों की तो बात ही कुछ और थी। इतने अन्नदान की व्यवस्था कैसे होती थी— यह सोचकर भी आश्चर्य होता था।

 बाबा की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता थी— किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना, जैसे, गीता की “यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः, हर्षामर्ष भयोद्वेगैर्मुक्तो........” अवस्था की साकार मूर्ति। समय-समय पर इन परिस्थियों में उनकी पारलौकिक शक्ति का प्रकाश देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।

एक बार के गुरूपूर्णिमा (आषाढ़ी पूर्णिमा) उत्सव का स्मरण हो रहा है। अनेक अतिथि भक्तों को बैठाकर भोजन कराया जा रहा है। दोपहर दो बजे तक लगातार भोजन चलाने के बाद परिवेशनकारियों ने सूचित किया कि अब जो प्रसाद (पूरी, मिठाई आदि) बचा है, उससे मुश्किल से दस आदमियों का भोजन हो सकता है। इधर प्रसाद-प्रार्थियों की संख्या तब भी दो सौ से कम नहीं। भण्डार में कच्चा माल (आटा आदि) भी नाममात्र का है।

समाचार सुनकर बाबा कुछ देर के लिए आँखें मूँदकर मौन रह गये। अचानक आसन छोड़कर उठ खड़े हुए। व्यस्त होकर भण्डार में घुसे। एक शालपत्ते पर कुछ पूरी मिठाई लेकर बाहर आकर उन्होंने आधा घण्टा के लिए परोसना बन्द रखने का आदेश दिया और स्वयं मन्दिर में घुसकर उन्होंने दरवाजा बन्द कर लिया।

     कुछ देर बाद बाबा का वज्रगम्भीर कण्ठस्वर सुनाई पड़ा, जो गगनभेदी था— “खप्परवाली भेजा? इसके बाद प्रसाद का पत्ता लिये बाहर निकलकर उन्होंने पुनः भण्डार में प्रवेश किया और फिर परिवेशनकारियों को भोजन परोसने का आदेश दिया। इस बार नये उद्यम के साथ भोजन परोसना शुरू हुआ। शाम तक भक्तों को भोजन कराकर भी प्रसाद की सामग्रियाँ निःशेष नहीं की जा सकीं।

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