प्रसंग- 8

 

“देवेन से मिल ले”

श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी उनकी कृपा से ऐसी एक घटना घटी है, जिसमें उनके सर्वव्यापित्व का परिचय मिलता है। बाबा प्रायः कहा करते थे, “अरे! यह हड्डी-मांस का पिंजड़ा ठो (स्थूल शरीर) दूर रहने पर क्या समझते हो कि गुरू दूर चले गये? सूक्ष्म शरीर में मैं तो तुम लोगों के साथ हमेशा हूँ। जब ही तेरा प्रयोजन होगा, ठीक से बुलाने पर आवाज मिलेगी ही!” यह उनका खाली मौखिक वादा नहीं था, बल्कि वास्तविक था। अपने जीवन में ही मैंने इसका अनुभव प्राप्त किया।

बात 1973 की है। बाबा उस समय जयपुर में थे। भागलपुर विश्वविद्यालय से स्वतंत्र परीक्षार्थी के रूप में संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा दे रखा था। उत्तम फल की ही आशा थी। रिजल्ट निकलने के कुछ ही दिन पहले विश्वविद्यालय के अधिकारियों का एक निर्दय पत्र आ पहुँचा— मेरे सभी पेपर कैन्सल हो गए हैं! अपराध यही था कि मैंने कुछ आलोचनात्मक प्रश्नों के उत्तर अपनी मातृभाषा बँगला में लिखा था, क्योंकि प्रश्न के ऊपर “मातृभाषा में लिखें”— ऐसा निर्देश था। लेकिन विश्वविद्यालय के नियम से एम.ए. परीक्षा में बँगला में लिखना वर्जित था। इसी गलती से मेरा उत्तरपत्र कैन्सल हो गया था।

इस हालत में मैं तो बिलकुल घबरा गया। इतने दिनों का श्रम बेकार हो गया। उपाय की आशा लिए बहुतों के पास दौड़ा। सबने बेकार की सान्त्वना देते हुए अगली परीक्षा में बैठने की सलाह दी।

सन्ध्या के समय पूजाघर में आसन पर प्रतिष्ठित बाबा के फोटो के सामने बहुत देर तक बैठा रहा। मेरा मौन आवेदन आँसू के रूप में बहने लगा। उसी रात एक स्वप्न दर्शन हुआ। वह स्वप्न था, लेकिन वास्तव-जैसा स्पष्टः

किसी अपरिचित स्थान में भक्तों से घिरे बाबा बैठे हुए हैं। वहीं एक कोने में मैं खुद बैठा हूँ, चिन्ता से खिन्न— मुरझाया हुआ। मुझ पर नजर पड़ते ही बाबा ने ईशारे से नजदीक बुलाया। पास जाकर बैठा। उन्होंने पूछा, “क्या बात है? व्याकुल भाव से परिस्थिति के बारे में बताया। बाबा ने विश्वविद्यालय की चिट्ठी देखनी चाही। दिखाया। देखकर तुरन्त उसे फाड़ डाला। मैंने चौंककर कहा, “आपने इसे फाड़ डाला!” बाबा हँसे और बोले, “पागल, एक ठो पुराना इलेक्ट्रिक बिल उठा लाया है।” कागज का एक टुकड़ा उठाकर देखा कि बात सही थी। दिमाग की अस्थिरता के कारण एक पुराना बिजली बिल ही मैं ले आया था। बाबा आँखें मूँदकर कुछ देर तक मौन रहे और फिर आँखें खोलकर बोले, “अच्छा जा, देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।” इसी के साथ मेरी नीन्द टूटी। इस चिन्ता के साथ सुबह हुई कि देवेनकौन है? सम्बन्धित सभी लोगों से तो मिला, लेकिन उनमें से किसी का नाम देवेननहीं था।

अन्ततः यही सोचा कि एक बार स्वयं कुलपति से मिलकर अन्तिम प्रयास किया जाय। एक माननीय अँग्रेजी प्राध्यापक से एक दरख्वास्त कुलपति के नाम लिखवाकर टाईप करा लिया और समय लेकर कुलपति से जा मिला। सौम्यदर्शन वयोवृद्ध कुलपति को दरख्वास्त देकर अपनी मजबूरी के बारे में विनम्र ढंग से सब बताया। विशेषकर दरख्वास्त में “मातृभाषा” के विन्दु पर ध्यान आकृष्ट किया। माननीय कुलपति ने मेरे आवेदन को ध्यान से पढ़कर इस पर सहानुभूतिपूर्ण विचार का आश्वासन दिया।

कुलपति के कमरे से द्विधाग्रस्त मन लेकर निकल आया। मन में तब भी ध्वनित हो रही थी स्वप्न की वह वाणी— ‘देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।’ सोचा, जिनके हाथ में अन्तिम फैसला है, उन कुलपति से भी तो मिला— लेकिन कौन है यह देवेन? गेट के पास पहुँचकर एक विद्यार्थी को इधर आते देखकर पूछा, “अच्छा भाई, कुलपति का नाम क्या है? उत्तर मिला, “देवेन्द्रनाथ सिन्हा।”

चौंक उठा! ठीक तो! कुलपति का नाम तो मेरा अज्ञात नहीं था, सामयिक रूप से भूल गया था। लेकिन किसने सोचा था कि विश्वविद्यालय के कुलपति देवेन्द्र सिन्हा ही स्वप्ननिर्दिष्ट बाबा के देवेनहैं! उस समय भाव-विह्वल अवस्था में चलने की शक्ति खोकर गेट पर ही बैठ गया। कानों में तब भी वही आवाज गूँज रही थी— “देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।”

अब समझने में बाकी न रहा, सुदूर जयपुर में भी मेरी प्रार्थना की व्याकुल आवाज उन नरदेवता के कानों में ठीक पहुँच गयी थी! भरोसे से भरी उनकी वाणी— “मैं जहाँ भी रहूँ, सदा सूक्ष्म शरीर से तुम लोगों के पास रहूँगा।” को उस दिन, उसी क्षण सम्पूर्ण हृदय से अनुभव किया।

कुछ ही दिनों में रिजल्ट निकला। स्वप्न में प्राप्त प्रतिश्रुति के अनुसार “सब ठीक” हो भी गया। माननीय कुलपति ने मेरे आवेदन पर सहानुभूतिपूर्ण विचार किया और मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें