प्रसंग- 12

 

“सद्भावना के साथ कर्मक्षेत्र में उतर जाओ”

श्री कल्याण कुमार राय रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)“ से साभार

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और एक घटना भी लिखे बिना नहीं रहा जा सकता, जिसमें स्पष्ट होगा कि कितना साधारण आयोजन लेकर भी वे अविचलित रूप से काम में उतर जाते थे।

अंग्रेजी 1966 की गोपाष्टमी की सुबह। बिन्दुवासिनी आश्रम में मैं पहुँचा— साहेबगंज जाना था, अभिलाषा लेकर कि चरणकमलों में प्रणाम करके ही यात्रा की जायेगी। कालिकानन्द जी के साथ बाबा गोपाष्टमी पूजा के लिए पूजन-सामग्रियों की तालिका बनाने बैठ गये। मेरी भी साहेबगंज यात्रा स्थगित हुई। यथानियम सिद्धि-सिन्दुर से लेकर ब्राह्मण दक्षिणा तक लिखा गया। सेवक ब्रह्मचारी से पूछकर मालूम हुआ कि माँ के भण्डार में पैसे सिर्फ 6-7 आने ही बचे थे।

बाबा की मुद्रा विकारहीन रही, किसी मानसिक विचलन का लेशमात्र नहीं। उसी क्षण मुझे अनुभव हुआ— साधारण आदमी और ऐसे महात्मा के बीच का अन्तर। एक भक्त ने अपने पॉकेट से जो कुछ था, निकालकर दे दिया। कुल 2-3 रुपये ही हुए। फिर नये सिरे से तालिका को संक्षिप्त रूप दिया गया। बाबा का कहना था, “इसी से माँ के भोग की व्यवस्था तो कर। उसके बाद माँ की इच्छा।”

इसी साधारण आयोजन से उत्सव प्रारम्भ हुआ। दिन बढ़ने के साथ-साथ एक-दो करके भक्त लोगों की भी संख्या बढ़ने लगी। किसी के साथ आया है फल-मिठाई का सम्भार, तो किसी के साथ तरह-तरह की शाक-सब्जियाँ। दस बजते-बजते साहेबगंज से आ पहुँचा किसी धनवान भक्त का भेजा आटे का एक बोरा और घी का टीना। कहाँ से जो क्या होने लगा— पता ही नहीं चला। दोपहर होते-होते अगणित अतिथियों का भोजन होने लगा। भारी संख्या में लोग आ रहे हैं, बैठकर भोजन कर सन्तोष के साथ लौट रहे हैं। शाम के समय दरिद्रनारायण सेवा में भी नारायण की अनेक मूर्तियों की सेवा हो गयी। गौशाला के चारों ओर मेला भी लग गया।

रात को हिसाब करके देखा गया कि लगभग डेढ़ हजार लोगों को भोजन दिया गया था। भले ही आरती के समय माँ के मन्दिर में प्रणामी का पात्र, जो बहुत बड़ी एक थाल थी, परिपूर्ण हो चुका था भक्तों के दिये गये भक्ति अर्घ्यों से।

रात में उत्सव का कोलाहल समाप्त हो जाने पर सेवक ब्रह्मचारी जी ने बाबा को सुबह की स्थिति की याद दिलायी। बाबा के प्रशान्त मुख पर वह मुस्कान विकसित हुआ, जो एकमात्र उन्हीं के मुख पर सम्भव है, जिनका जीवन कमल अमरलोक की किरण के स्पर्श से विकसित हुआ हो। उन शान्त गम्भीर महापुरूष के श्रीमुख से उच्चारित हुई यह वाणी—

“यदि तुममें सद्भावना हो, तो उसी को पूँजी बनाकर कर्मक्षेत्र में उतर जाओ। सोचना नहीं कि कैसे होगा। तुम सोचने वाले कौन होते हो? इच्छामय के हाथों में हम लोग खिलौने ही हैं। क्या साध्य है कि अपनी शक्ति से उनकी परिकल्पनाओं को बदल डालें! अतएव, उतर जाओ, चिन्तामणि ही चिन्ता करेंगे।”

बाबा की आश्वासन भरी वाणी से गीता में भगवान की उस वाणी की ही याद आ जाती है—

 “न हि कल्याणकृत् कश्चिद्दुगंति तात गच्छति।”

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