प्रसंग- 13

 

एक हाँड़ी, डेढ़ किलो रसगुल्ला

श्री डी.एन. पाण्डेय रचित पुस्तक जाने अनजाने प्रसाद के दो दाने“ से साभार

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

करीब-करीब मेरे गुरू की साधना के बरहरवा पहाड़ी पर बारह वर्ष हो रहे थे। बरहरवा पहाड़ी अब पहले की तरह नहीं थी। विशाल भव्य मन्दिर का निर्माण हो चुका था। विभिन्न प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी हो चुकी थी। बरहरवा की पहाड़ी महान योगी को अपनी गोदी में पाकर हँस रही थी। वर्षों अपने गुरू के सान्निध्य मे रहा और देखा एक ओर मेरे गुरू का वह स्वरूप जो कि एक महान योगी का था। दूसरा स्वरूप उस गृही का था, जिसकी हर नजर गृह के संचालन में केवल चेष्टा नहीं, बल्कि चातुर्य प्रदर्शित करती थी। बाबा कहते थे कि गृह जीवन का ऋण आश्रम जीवन से चुकता है। बाबा के आश्रम जीवन का परिवार लम्बा-चौड़ा था। सब लोग यही कहते थे कि बाबा हमें सबसे ज्यादा मानते हैं। हर कोई बाबा पर गर्व करता था और ऐसे बहुत-से भाई, बहनों के मुँह से सुना जाता था कि बाबा हमारे हैं, कोई हमारा क्या कर लेगा? बाबा अपने बेटे, बेटियों, स्त्रियों और भक्तों के घर यदा-कदा जाया भी करते थे। बड़ा वृहद् गुरू परिवार था। मैं भी सोचता था कि क्या कभी बाबा मेरे घर आयेंगे? सुना कि बाबा पटना आने वाले हैं। यह सुनकर मैं बेचैन हो गया कि कब बाबा आयेंगे, किस गाड़ी से आयेंगे। फिर पता चला कि ‘अपर-इण्डिया’[1] से बाबा आयेंगे। फिर पटना से एक सज्जन ने फोन किया कि बाबा पटना के लिए बरहरवा से चल चुके हैं, परन्तु किसके यहाँ जायेंगे— यह पता नहीं चला। मैं तो आनन्द में पागल था। दौड़े-दौड़े बाजार गया और केवल डेढ़ किलो रसगुल्ला एक हाँड़ी में लेकर आया और पत्नी से कहा, “इसे रखो, मैं स्टेशन जा रहा हूँ। बाबा पटना आ रहे हैं।”

मैं बेतहाशा पटना स्टेशन पहुँचा और कई लोगों को देखा जिनके हाथों में गुलदस्ता और माला थी। मेरे पास न गुलदस्ता और न माला। बाहर में कुछ गाड़ियाँ भी मालाओं से सजी थीं। एक महान सन्त का आगमन था। प्रतीक्षा में सब खड़े थे। मैं अकिंचन, अभागा प्लेटफार्म के एक कोने में खड़ा था। ज्यों ही गाड़ी आई, मैं दौड़ पड़ा। बाबा का चरण स्पर्श किया और उनका कमण्डल अपने हाथ में ले लिया। अन्य कुछ नहीं मिला। आगे कमण्डल और डोलची लिए मैं और पीछे-पीछे बाबा फूल मालाओं से लदे हुए। मैं आह्लादित था। पैर की गति तेज थी। पीछे मुड़-मुड़ कर देखता था। कहीं कोई बाबा को मुझसे न छीन ले। गरीब को धन मिला था। मुझ गरीब को तो वह साम्राज्य मिल गया था, जिसके आगे सभी साम्राज्य फीके लग रहे थे। कहाँ तक बताऊँ, वह श्लोक भी मुझे फीका लग रहा था जो कि बड़ा सारगर्भित है—

‘‘सर्वास्त साम्राज्यं भोग्यं स्वाराज्यं वैराग्यं

पारमेष्ठयं राज्यं महाराज्यं आद्यिपन्यभय’’

न चाहिए योग साम्राज्य, न भोग साम्राज्य केवल गुरू चरण मेरे घर में पड़े। बाबा ने अपनी माला उतारकर मुझे दे दी और मैं आनन्दमग्न रिक्शा-पड़ाव की ओर बढ़ा। वहाँ, मेरा रिक्शा पहले से ही खड़ा था। वह एक राय जी का रिक्शा था, जिसे पहले से ही तय करके रखा था। उसी रिक्शे से आया था और फिर उसी रिक्शे से जाना था। बाबा मेरे साथ रिक्शे पर बैठ गये। घण्टी के साथ रिक्शा आगे बढ़ने लगा। पीछे-पीछे गाड़ियों का कारवाँ। रिक्शे की घण्टी मेरे कानों में ऐसे लग रही थी, जैसे मन्दिर की घण्टी। सड़क के दोनों फुटपाथ पर आने-जाने वाले लोग आश्चर्य-चकित नेत्रों से देख रहे थे— यह कौन विशालकाय, विशालजटा योगी शरीर इस रिक्शे से जा रहा है!

राजेन्द्र नगर रोड नं.-1, पटना का वही मकान जो कि तुंगेश्वरबाबू एडवोकेट का था, जिनके सन्दर्भ में पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है। मेरा पूरा घर भर गया, बाहर का बरामदा भर गया। गेट तक लोग भर गये। सबकी आँखों में श्रद्धा थी और इस महान सन्त के दर्शन की अभिलाषा। सभी लोगों ने बाबा के दर्शन किये, परन्तु उस दिन की भीड़ के क्या कहने! मेरी पत्नी के उल्लास का ठिकाना नहीं। बाबा मेरे घर एक छोटे-से पलंग पर विराजमान हुए और चारों तरफ से भक्तगण घेरकर बैठ गये। मेरी पत्नी सावित्री को, जो कि बाबा की शिष्या थी, क्षण भर की फुर्सत नहीं। बाबा का चरण और चौका दोनों एक किये हुए थीं। धन्य हो गया मेरा घर, गुरू का चरण पड़ा और कण-कण पवित्र हो गया।

हम दोनों पति-पत्नी ने बाबा के चरण पखारे, स्नेह से बाबा के चरण पोंछे, चरणामृत लिये और फिर शुरू हो गई चाय, कॉफी, नाश्ते और भोजन का सिलसिला। न जाने उस दिन भण्डार क्यों नहीं कम हो रहा था। जो आता, वही प्रसाद पाता। कोई-कोई नाश्ता भी करता। चाय और कॉफी का सिलसिला वैसे ही अनवरत था। हम दोनों पति-पत्नी बाबा की सेवा में मशगूल थे। वह आनन्द कुछ और ही था। शायद मुझ तुच्छ दम्पत्ति के जन्म-जन्मान्तर के पुण्य का यह फल था। डेढ़ किलो रसगुल्ला जो कि मिट्टी की हाँड़ी में था, उसमें तुलसीदल पड़ा था बाबा का भोग लगाया हुआ— वह तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता था। यह नहीं था कि उसमें से रसगुल्ला नहीं निकाला जाता था और नहीं बाँटा जाता था; बल्कि उसकी पूरी छूट थी। जो जब आया प्रसाद तैयार था। भण्डार भरा था। बाबा के हर आदेश का पालन होता था। जब रात्रि के ग्यारह बजे और इने-गिने लोग रह गए, तो हम पति-पत्नी बाबा के सम्मुख खड़े हुए और बोले, “बाबा अगर कोई त्रुटि हो, तो क्षमा करेंगे।” बाबा ने जो पधारने का अनुग्रह किया था, इसके लिए बार-बार विभिन्न भावों से हम दोनों अपना आभार प्रकट कर रहे थे। बाबा ने कहा, “माई, अब सब लोग खा लिया। रसगुल्ले की हाँड़ी में दो रसगुल्ला बचा है। तुम लोग भी प्रसाद पा लो और हाँड़ी को धोकर लाहिड़ी बाबा के सामने औंध दो।” केवल दो ही रसगुल्ला बचा था। क्या ही आश्चर्य था! क्या मेरे गुरूदेव रसगुल्ला गिन-गिन कर खिला रहे थे या अपने आशीर्वाद का अक्षय तुलसीदल उन्होंने डाल दिया था, जिससे कि वह कभी खत्म होने वाला ही नहीं था!

आनन्द, आनन्द ही है। निद्रा भी इसे घेर नहीं सकती है। आनन्द में थकावट भी नहीं होती है। गुरू की चरण सेवा और उनकी वचनामृत लगातार चल रही थी। हम पति-पत्नी कभी गुरू सेवा और कभी गुरूमुख से निकली अमृतवाणी का स्वाद चख रहे थे। खाने की तो इच्छा ही नहीं कर रही थी। बाबा के बार-बार आग्रह करने पर हम दोनों ने प्रसाद के रूप में हाँड़ी के दो रसगुल्ले खाए थे। हाँड़ी अभी पूजास्थल पर लाहिड़ी बाबा के सम्मुख औंधी पड़ी थी। हम लोग भी खाली हाँड़ी की तरह गुरूस्थान के सम्मुख लेट गए। जैसे-तैसे आनन्द में रात कटी, किन्तु पत्नी के मन में एक अफसोस था। उनका भाई रामनारायण पाण्डेय मुन्सिफ की परीक्षा दे चुका था, किन्तु किसी कारणवश उनकी नियुक्ति नहीं हो रही थी। पत्नी ने कहा, “बाबा से कहिए,” लेकिन बार-बार कहने पर भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। सुबह होते ही पत्नी ने कहा, “अब मैंने सारी बातें बाबा से कह दी हैं।” बाबा तो अवघड़दानी थे। मेरी पत्नी बगल में खड़ी थी। बाबा ने मेरी पत्नी की ओर इंगित करके कहा, “बेटी सावित्री, सेक्रेटारियट के किसी फाईल में तुम्हारे भाई का नियुक्ति पत्र अटका है, जल्दी ही मिल जायेगा। उससे कहना 108 कन्या कुमारी का भोजन पहाड़ पर करा देगा।”

बाबा के मुख से निकली बात अक्षरशः सत्य निकली। रामनारायण बाबू को मुन्सिफ पद पर नियुक्ति का पत्र मिला। आज वे राँची में न्याय आयुक्त हैं। दोनों, रामनारायण पाण्डेय और उनकी पत्नी दीक्षित हैं। बाबा ने उस दिन अपनी नित्यचर्या करने के बाद थोड़ी-सी कॉफी ली। पत्नी अपने हाथों से बनाकर लायी थीं। और फिर, धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी। नाश्ता, चाय और कॉफी का दौर शुरू हो गया। घर, बरामदा और मकान का चप्पा-चप्पा भीड़ से भर गया। भक्तों में होड़ मची थी— बाबा को अपने घर ले जाने की। फिर बाबा तैयार होने लगे और बोले, “सावित्री, आज अब खाना मत बनाओ।” बाबा तैयार होकर पूजाघर में आये। हम लोगों ने बाबा की आरती की और बाबा ने पूजास्थल पर अपना हाथ थोपकर यह आशीर्वाद दिया—

 उत्तिष्ठतः जाग्रतः प्राप्तवान भवेत

उस औंधी हाँड़ी के बारे में, जो धोकर लाहिड़ी बाबा के सम्मुख रखी गई थी, बाबा ने आदेश दिया, “अब इसे हटा दो।” वह औंधी हाँड़ी हटा दी गयी और बाबा ने भक्तों के घेरे में घर से विदाई ली। हम लोगों की आँखों की पलकें आनन्द से भींग रही थी। सत्य ही तुलसी ने कहा है-

       मिलत एक दारुन दुख दिन्हा।

       बिछुड़त एक प्रान हरी लिन्हा।।



[1] उन दिनों बरहरवा जंक्शन होकर दिल्ली-कोलकाता के बीच चलने वाली एक प्रतिष्ठित ट्रेन का नाम ‘अपर इण्डिया एक्सप्रेस’ हुआ करता था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें